बौद्ध को दीपदान उत्सव नहीं बनाना चाहिए Buddhist should not make lamp donation festival
3/7/20251 min read


हम भारत को बौद्ध में बनाना चाहते लेकिन बौद्ध धर्म को स्वीकार भी कर लेते हैं लेकिन बुद्ध के संस्कारों को बुद्ध की परंपराओं को स्वीकार नहीं कर रहे आज भी लोग जो लोग दिवाली के दिन दीपदान कह कर के उत्सव मनाने की बात करते हैं क्या ये धर्म की व्यवस्था को मटिया मल करने का षड्यंत्र नहीं है कोई बुद्धिजीवी बताए कि दीपो दन में दिया किधर से जलेगा और दिवाली में दिया किधर से जलेगा दीपदान में दिवाली में का अंतर बता के बताए हम बाबा साहब के मानने वाले लोग अगर बाबा साहब का अपना आदर्श मानते हैं तो बाबा साहब की बात पर भरोसा करना चाहिए अगर दिवाली दीपदान होती तो बाबा साहब बता करके जाते 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहब बुद्ध की शरण में गए उन्हें अच्छी तरह से याद होगा कि 20 दिन के बाद दिवाली आने वाली है लेकिन जिक्र तक नहीं किया ने हमें धम्म की शरण इसलिए दी कि जिस व्यवस्था के हम हिस्सा बने थे वहां असमानता थी भेदभाव था छोटे बड़े की भावना थी छुआछूत थी इंसान को इंसान घणा की दृष्टि से देखता था और इस सबके पीछे एक ही कारण था कि समाज जातियों में बैटा था और जब तक जातियां है इस भेद को खत्म नहीं किया जा सकता बाबा साहब ने पूरी कोशिश की कि इसी व्यवस्था में रहकर के जातिया खत्म हो जाए भेद खत्म हो जाए पूरा जीवन लगाने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे किस व्यवस्था में जाति खत्म नहीं हो सकती अगर हमें जाति को खत्म करना है भेदभाव को खत्म करना है गैर बराबरी को खत्म करना है तो हमें एक नए मार्ग पर चलना होगा और बाबा साहब ने उस मार्ग में बुध को तलाशा हम सब जानते हैं कि बुद्ध के धम में कोई भेदभाव नहीं है कोई गर बराबरी नहीं है कोई जाति व्यवस्था नहीं है इसीलिए बाबा साहब ने बुद्ध के धम को चुना था कि जब हम बध बनेंगे जातिया टूटें मानव मानव एक समान होगा और सही मायने में जब इंसान इंसान से प्रेम करने लगेगा घणा खत्म होगी भाईचारा कायम होगा बंधुता के साथ समाज में सुख से रहने लगेंगे कामना को लेकर के बाबा साहब ने बुद्ध के धम को स्वीकार किया आप में से कितने लोग हैं कि जो बाबा साहब की इस बात प सहमत है कि जातिया नहीं होनी चाहिए हाथ ऊपर करने वाले थोड़ी देर के बाद निराशा में जाएंगे मुझे मालूम है बाबा साहब ने कहा था तुम जिस भी दिशा में जाओगे जातिवाद के दैत्य से दो दो हाथ करने पड़ेंगे और जब तक इस दैत्य को नहीं मारोगे किसी भी दिशा में किया गया प्रयास कोई परिणाम नहीं देगा जाति की बुनियाद पर आप जो भी निर्माण करेंगे सब चटक जाएगा कभी पूरा नहीं होगा मैं भी अपनी पीड़ा साझा कर रहा हूं आपके साथ एक उम्मीद करता हूं मैं कि जो व्यक्ति माइक पर आकर के मंच पर आकर के समाज को दिशा देने का काम करता हो उस आदमी को तो जाति व्यवस्था को नकार करके ब बन कर के ही बात करने का कना चाहिए लेकिन हम लोग जाति से पीड़ित है हम भेदभाव से पीड़ित हैं हम जुल्म अत्याचार से पीड़ित होने के बावजूद भी जाति से इतना प्रेम करते हैं इतना प्रेम करते हैं कि बाबा साहब की बात को मानते हुए भी बुद्ध की शरण में आने के बाद भी हम जाति को छोड़ नहीं पा रहे हैं और बाबा साहब ने कहा था मैं आगाह कर रहा हूं आप सब लोगों को बाबा साहब ने कहा था कि तुम्हारा जाति के प्रति आगाज प्रेम ही तुम्हारे विध्वंस का कारण बनेगा जो लोग इस गलतफहमी में आकर के बौद्ध बन गए हैं कि जाति बची रह जाए गोत्र बचा रह जाए और हम बौद्ध बन जाए आप विध्वंस करेंगे बौद्ध धर्म का और इस विरासत को नहीं बचा पाएंगे अगर जाति से प्रेम करते हो तो बुद्ध की शरण में आने की आवश्यकता नहीं है हम तो उन लोगों से ही बध धम को आगे बढ़ाएंगे जो जाति से प्रेम नहीं करते हो बुद्ध की बात करते हैं और जाति से चिपके बैठे हैं सारी उम्र मनुवाद को कोसते हैं और अपने संतान की शादी करने का समय आता है तो अपनी जाति में लोग खोजते हैं आप अपनी जाति से प्रेम करते हैं यह गुनाह नहीं है लेकिन अपनी जाति से प्रेम करके बौद्ध बने दूसरे लोगों को नकारते हैं य विरासत को बचाना है तो जाति को खत्म करना होगा विरासत को बचाना है भारत को ब बनाना है तो जाति के नासूर को दफन करना होगा और देखते कि कौन आदमी आज रूपांतरित होता है इस संकल्प के साथ य से जाए कि मैं आज के बाद जाति की इस्तेमाल नहीं करूंगा और नाम के पीछे जो आप पहचान बनाकर चले हैं यह भी जाति का महिमा करने का दूसरा स्वरूप है अगर किसी के नाम के पीछे लगा हो तो इसको व्यक्तिगत मत लेना बध बनने से पहले खोबरा गड़े थे आज भी खोबरागड़े बध बनने से पहले मेश्राम थे आज भी मेश्राम ब बनने से पहले गुड़ पड़े थे आज भी गुड़ पड़े हो क्या यह बध की व्यवस्था है दूसरी बात हम भारत को बौद्ध में बनाना चाहते लेकिन बौद्ध धर्म को स्वीकार भी कर लेते हैं लेकिन बुद्ध के संस्कारों को बुध की परंपरा को स्वीकार नहीं कर रहे आज भी लोग जो लोग दिवाली के दिन दीपदान कह कर के उत्सव मनाने की बात करते हैं क्या यह धम की व्यवस्था को मटिया मल करने का षड्यंत्र नहीं है कोई बुद्धिजीवी बताए कि दीपदान में दिया किधर से जलेगा और दिवाली में दिया किधर से जलेगा दीपो दन ने दिवाली में को अंतर बता के बताए हम बाबा साहब के मानने वाले लोग अगर बाबा साहब का अपना आदर्श मानते हैं तो बाबा साहब की बात पर भरोसा करना चाहिए अगर दिवाली दीपदान होती तो बाबा साहब बता कर के जाते 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहब बुद्ध की शरण में गए उन्हें अच्छी तरह से याद होगा कि 20 दिन के बाद दिवाली आने वाली है लेकिन जिक्र तक नहीं किया अगर उस समय भूल भी गए होते तो 20 दिन के बाद याद आ जाता लेकिन बाबा साहब जानते थे कि यह हमारा उत्सव नहीं है जिक्र करने की आवश्यकता नहीं है जो हमारा नहीं है उसका जिक्र क्यों करे लेकिन उत्तर भारत में बहुत सारे विद्वान पैदा हो गए जो बाबा साहब से ज्यादा विद्वान जो बाबा साहब नहीं खोज पाए उन्होने खोज लिया बौद्ध धर्म के किसी भी सा कार्तिक मास की अमावस्या का जिक्र तक नहीं है और दिल्ली में बैठे विद्वानों की आंखों के सामने कार्तिक मास की अमावस्या दिखती है क्योंकि उनकी संतान उनकी पुत्र वधु उनकी जीवन संगिया इस मोह को नहीं छोड़ पा रही हो सकता कि दिवाली के दिए की रोशनी में लक्ष्मी घर में प्रवेश कर जाए क्या बों के पास उत्सवों की कमी है जब तक धम हमारे आचरण में नहीं आएगा हम कैसे ब बनेंगे आप बौद्ध बन गए कौन सी परंपरा बदली अबोध थे तब भी शादी करते थे तो बैंड बजता था आज भी बज रहा है अबोध शादी करते थे घोड़ी पर बैठते थे आज भी घोड़ी पर बैठे हैं अबोध की शादी होती थी तो पी कर के नाचते हैं आज भी पी कर के नाचते हैं जहां भी जब भी दावत थी आज भी दावत है वहां भी दहेज था यहां भी दहेज है कौन सी परंपरा बदली बस एक परंपरा बदल दी जहां पहले पुरोहित आता था लाल कपड़ा क पर टांग करके आज चीवर पहने हुए पुरोहित आता है बस फर्क इतना सा हो [प्रशंसा] गया अगर बध धम को बचाना है तो जन्म से लेकर के मृत्यु तक के सारे संस्कार बध नीति से करने पड़ेंगे और बौद्ध रीति का मतलब यह नहीं कि जैसा हम पहले करते रहे बस यहां भिक्खू को आगे कर दो सारा काम बौद्धों का हो गया ऐसा बिल्कुल नहीं होने वाला हमें पौधों की विरासत को बचाना है तो बौद्धों की परंपराओं को स्थापित करना होगा जन्म भोज की परंपराएं खत्म करनी होंगी विवाह की परंपरा को नया आयाम देना होगा और मरने के बाद क्या किया जाए उसको ठीक से परिभाषित करना होगा पहले भी अस्थियों को लेकर के पानी में बहाते थे आज भी वही काम करते हैं पहले 12 दिन रोते थे आज भी 12 दिन रो लेते हैं पहले भी मरने के बाद मृत्यु भोज करते थे और आज लड्डू खाते हुए लज्जा नहीं आती है क्या बौद्ध धम स्थापित हो जाएगा बध बनने से पहले हम लोग महिलाओं को बराबर नहीं मानते थे और बध बनने के बाद क्या हमने महिलाओं को बराबर माना मैं महाराष्ट्र को छोड़ देता हूं क्योंकि महाराष्ट्र में पर्दा प्रथा नहीं है छत्तीसगढ़ के बारे में ज्यादा पता नहीं है बस खत्म कर दिया मैंने लेकिन हरियाणा उत्तर प्रदेश राजस्थान मध्य प्रदेश में आज भी महिलाए घूंघट में है आज भी उनकी पत्निया चूड़िया पहनती महाराष्ट्र में भी पहनती है बध धम को स्थापित करने का इम्तिहान है आज जाकर के अपनी जीवन संगिनी के हाथ की चूड़ उतरवा देना आप बहादुर कहलाएंगे व्यवस्था बदलने के लिए आप अपनी जीवन संगिनी की मांग के अंदर से लाल रंग हटा देना और हो सके जिन जीवन संग घूंघट करती घूंघट हटा देना आप बहादुर कहलाओगे वरना बुल पैदा हो कर के बुल मर जाओगे बुद्ध की शरण में आने के बाद अगर महिलाओं से भेदभाव करते हो तो आप बध नहीं कहलाते इसलिए मैं इसी सूत्र पर बात करके अपनी बात को विराम दे रहा हूं धम के सिद्धांत और शिक्षाओं को जनता तक पहुंचना चाहिए सस्ता प्रकाशन होना चाहिए और सुलभ भाषा में लोगों तक बातें जानी चाहिए धम के सिद्धांत और शिक्ष को जनता की भाषा में जनता तक समझाने वाले प्रचारक होने चाहिए और तीसरी बात जो धर्म के सिद्धांत और शिक्षाएं हैं वो आचरण में उतरनी चाहिए अगर इतना हम कर सकेंगे तो हम बौद्ध धर्म को स्थापित भी कर पाएंगे और शिरपुर जैसी बौद्धों की महान विरासत को बचाने में सक्षम हो पाएंगे
