धम्म एक दीक्षा दो प्रकार की क्यों why is dhamma one of two types of initiation

2/24/20251 min read

विश्व के महान सस्ता सम्यक समबुद्ध को सादर नमन, प्रबुद्ध उपासक उपाशिकाओं धम्म दीक्षा क्या है ?कोई व्यक्ति दीक्षा कब ले सकता है, भिक्षु बनने के लिए क्या शर्ते हैं? भिक्षु बनने के लिए किस प्रकार की दीक्षा है हम इस विषय पर चर्चा करेंगे। जब हम धम्म दीक्षा की बात करते हैं तो धम्म दीक्षा को समझने के लिए, हमें महाकारुणिक बुद्ध के द्वारा जो धम्म प्रचार का काम किया है उसको समझना होगा वास्तव में धम्म दीक्षा तथागत के द्वारा बनाई गई धम्म प्रचार योजना का एक हिस्सा है कोई व्यक्ति तथागत की देशनाओ को सुनता है और सुनने के बाद वह प्रेरित होता है और उसे मार्ग को जानने के लिए ,और समझने के लिए ,जब वह समझ जाता है कि मार्ग तो बहुत सुंदर है जीवन के लिए उपयोगी है ,और कल्याणकारी है दुखों का अंत करने वाला है ,और सुखों को पाने वाला है ।कि इस मार्ग पर चलने से मेरा कल्याण होगा जब व्यक्ति में यह भावना आने लगती है वे रूपांतरित होना चाहता है वह नई व्यवस्था में प्रवेश करना चाहता है उसके लिए तथागत ने एक मार्ग की व्यवस्था की वह दीक्षा ले करके वह इस नए धम्म में प्रवेश कर सकता है । तो दिशा के लिए जरूरी है, कि पहले व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार हो और उसमें यह विश्वास प्रबल रूप से स्थापित हो जाए ,कि मैं पुरानी व्यवस्था को त्याग करने के बाद नई व्यवस्था में प्रवेश करूंगा, यह व्यवस्था मेरे लिए कल्याणकारी है और मेरे सुख लिए देने वाली है दुखों का नाश करने वाले है जब व्यक्ति मानसिक रूप तैयार होता है तो उसे दीक्षा लेने के लिए इस व्यवस्था को त्यागना है और नई व्यवस्था में प्रवेश करना है । तो दिशा में तथागत ने बहुत साधारण सा विषय बनाया कि सबसे पहले व्यक्ति बुद्ध , धर्म और संघ कि इनका व्यक्ति सर्वगमन करें । बुद्ध का मतलब ज्ञान की शरण ग्रहण करें, एवं धम्म का अर्थ है कि दु‌‌ःख मुक्ती और सुख प्राप्ति का जो मार्ग उसकी शरण ग्रहण करे , और संघ का अर्थ है कि इस मार्ग पर चल रहे हैं उनके लिए संघ करें , तो बुद्ध धम्म और संघ तीनों का स्वर इमान करें उसके पश्चात् समवन ग्रस्त के लिए पांच शिलों का व्यवस्था कि वे पंचशील इस प्रकार हैं मैं प्राणी हिंसा नहीं करूंगा ऐसी शिक्षा ग्रहण करता हूं पाणाति पाता वेरमणि सिखापदाम समादियामी अगला पाद अदिनदाना वीरमणि शिखा पदम समादियामी कि दूसरे की वस्तु की चोरी नहीं करूंगा ऐसी शिक्षा ग्रहण करता हूं है तीसरा सील है कामेसुमीछा चारा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि मैं सभी प्रकार की कामनाओं वासनाओं से दूर रहने यह ऐसी शिक्षा ग्रहण करता , मूसा वादा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि मैं छुठ नहीं बोलूंगा, निंदा नहीं कहूंगा किसी को बुरा नहीं बोलूंगा, ऐसी में शिक्षा ग्रहण करता, पांचवा शील है सुरामेर्यमाजपमादठाना सिक्खापदं समादियामि कि मैं किसी भी प्रकार का नशा नहीं करूंगा कच्ची-पक्की शराब का सेवन नहीं करूंगा , ये पाच मापदंड बनाए जो व्यक्ति बुद्ध धम्म और संघ की शरण करने के बाद, इन पांच माध्यमों को स्वीकार करता है इस स्वीकार करने की पद्धति जो परंपरा है मैं इसको दीक्षा कहां है ,और हम को स्वीकार करने के बाद यह कह सकता है कि अब मैंने बौध्द के मार्ग को स्वीकार कर लिया है कि उसे उम्मीद की जाती है अगर इन पांच का पालन करें है क्योंकि फिर उस व्यक्ति के कल्याण के लिए , इन जिलों के पालन करने से दूख होने इन शिलना की पालना में ही उसे सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होना है , एक ग्रहस्थ व्यक्ति पांच शिलों ग्रहण करने के बाद भी वह पांच शिलों की पालना नहीं करता है तू वह इस कामना के साथ घम्म में प्रवेश कर है उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता है बौद्ध तो कहलाता परंतु उद्देश्य पूरा नहीं होता तो इस बात को समझना है की सामान्य व्यक्ति सामान्य तरीके के साथ कि इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद अपने आप को बौद्ध कह सकता है उसके लिए बस इतना ही है कि वह पुरानी व्यवस्था का त्याग कर और नई व्यवस्था नई परंपराओं और नए सिद्धांतों को स्वीकार करें यह पांच मापदंड उपासक के लिए शिक्षा है सीखने की प्रक्रिया है वह गलती कर सकता है तो खम्मा याचना के साथ उसे ठीक करने के लिए उसके पास अवसर भी है कि वह दोबारा से शील ग्रहण कर सकता है तीसरी बार ग्रहण सकता है उसके लिए एक शिक्षा मात्र है तो एक सामान्य व्यक्ति की शिक्षा इसी प्रकार से होती है कि कोई भी भिक्षु दिशा दे सकता है। कि कोई भी श्रेष्ठ व्यक्ति जो पहले से युद्ध में परिपक्य है घम्म को जानता है वह किसी भी व्यक्ति को दिशा दे सकता है ऐसा बाबा साहब अंबेडकर ने घम्म में प्रवेश करते समय कहा था, कि कोई भी जो पहले से धाम में पारंगत है वह दूसरे को दीक्षा सकता है अब दूसरे प्रकार की दीक्षा है जिसको ग्रहण करने के बाद व्यक्ति भी भिक्षु बनता है यह थोड़ी सी भिन्न है भिक्षु बनने के लिए सबसे पहली आवश्यकता यही है कि व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार हो जाए कि उसे भिक्षु बना है भिक्षु बनने के साथ उसे अपने माता-पिता से अनुमति लेनी होती है बिना माता-पिता अनुमति के उस भिक्षु नहीं बनाया जा सकता अगर व्यक्ति विवाहित है तो उसे अपने जीवन संगिनी से अगर वह महिला है तो उसे अपने जीवनसाथी से अनुमति लेनी होगी अनुमति लेने के बाद उसे पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह त्यागना पड़ता है वह अपने घर का त्याग करता है परिजनों का त्याग करता है संपत्ति का त्याग करता है और किसी प्रकार का धन,संपदा उसके पास नहीं रहती है फिर उसका सबसे पहला पवज्जा संख्कार होता है पवज्जा संख्कार का अर्थ है उसके के सर पर केस संपन्न होता है सर के बाल काट दिए जाते हैं दाढ़ी का भी मुड़न हो जाता है केश संपन्न करने के पश्चात् वह अपने पिछले वस्तुओं का भी त्याग करता है जो पहले वस्त्र पहनकर क्या करना पड़ता है और जो भिखु है उस व्यक्ति काश्य वस्त्र की याचना करता है ,जिसे हम चिवर कहते हैं वह पुराने वस्तुओं का त्याग करता है और चिवर ग्रहण करता है चिवर पहनने के बाद भिक्षु उसे 10 शिल देता है भिक्षु के लिए 10 मापदण्ड है यह व्यक्ति भिक्षु बनने के बाद जीवन पर्यंत इन 10 मापदंडों का पालन करना पड़ता है यहां एक मुख्य अंतर है जहां पांच शिलों की बात थी वह उपासक के लिए थी जो केवल उपासक के लिए शिक्षा मात्र है लेकिन भिक्षु के लिए जो 10 सेल हैं यह उसके संकल्प है एक बार संकल्पित होने के बाद यह कामना की जाती है कि वह भिक्षु जीवन पर्यंत उन शिलो का पालन करेगा किसी भी स्थिति में वह शिलहिन नहीं हो सकता यह हैं भिक्षु पवज्जा संख्कार , कोई भी एक भिक्षु किसी भी व्यक्ति को पवज्जा संख्कार दे सकता है या किसी भी एक व्यक्ति को पवज्जाती कर सकता हैं ग्रह त्याग के बाद,पवज्जाती होने के बाद वह भिक्षु बन गया उसे संगमनेर कहते है पवज्जा के बाद ग्रस्त व्यक्ति संगमनेर बनता है अब संगमनेर बनने के बाद वह अपने आश्चर्य के साथ रहकर के धम्म को सीखता है, ध्यान साधना करता है और धम्म नियमों में पारंगत होता है इसके लिए कोई निश्चित अवधि नहीं है लेकिन अपनी-अपनी सुविधा अनुसार कोई व्यक्ति कितना जल्दी सीख सकता है कितने दिनों में सीख सकता है वह कितना पारंगत जल्दी हो सकता है उसके आधार पर जब उसका आचार्य संतुष्ट हो जाता है जिससे पवज्जा ली थी जिसके सामहृदय में रहकर के धम्म को सीख रहा है जब समझता है कि मेरा जो शिष्य है जो मेरे द्वारा पवज्जाती व्यक्ति है अब वह धम्म में पारंगत हो गया है तब उसका उसंपदा संख्कार किया जाता है उपसंपदा संख्कार के लिए कम से कम 10 भिक्षु को का होना आवश्यक है और 10 भिक्षु भी वह होते हैं जिनके 10 वर्षा वास पूरे हो चुके हैं यानी कम से कम 10 होने चाहिए । संख्या 10 से ना कम हो ज्यादा हो सकती है साथ में वह भी हो जो पवज्जा आचार्य है सभी भिक्षु उसे भिक्षु एक परीक्षा लेते हैं उसके ज्ञान को जानने के लिए वह विन्यम् में कितना पारंगत हुआ है वह भन्त सिद्धांतों को कितना समझ पाया है परीक्षा के दौरान व्यक्ति को समझते हैं संतुष्ट हो जाते हैं कि अब यह भिक्षु बनने के लायक हो गया है तब उसका उसंपदा संख्कार संपूर्ण होता है और उसे मान्यता मिल जाती है कि वह अब भिखु बन गया , भिक्षु बनने के बाद और वह भिक्षु संघ का सदस्य बन जाता है। यह है दूसरी दिक्षा और पहली दीक्षा पवज्जा संख्कार हो गई और दूसरी दिशा हो गई उसंपदा संख्कार । एक बार भिक्षु बनने के बाद वह जीवन पर्यंत भिक्षु रहता है। यहां एक बात समझने की है पवज्जा के लिए एक निश्चित अवधि है जो व्यक्ति पवज्जा लेकर के सामनेर बना है वह निश्चित समय के बाद चाहे तो दोबारा से ग्रस्त बन सकता है कि जब तक उसकी उपसंपदा नहीं हुई है वह चिवर का त्याग करके अपने आचार्य अनुमति के साथ फिर से ग्रस्त जीवन जी सकता है क्याकि सामनेर का जीवन एक छात्र जीवन है, विद्यार्थी जीवन है एक सीखने वाला जीवन है अगर किसी को लगता है कि भिक्षु बड़ा कठिन है और वह ये जीवन नहीं जी सकता तो वह लोट के आ सकेता है क्योंकि उसकी उपसंपदा नहीं हुई है लेकिन एक बार उपसपंदा होने के बाद फिर उसे चिवर में ही रहना होता है चिवर का त्याग करना आसान नहीं होता है हा यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से ही चिवर उतारकर के पुन्ह ग्रस्त बन जाए सकता है बन जा सकता है लेकिन यह एक अपमानजनक घटना होती है हर व्यक्ति उसे संदेह जनक दृष्टि से देखा है लगता है वह जानता है कि वह नियमों का पालन नहीं कर पाया इसलिए घर में लोट आया है लोग इस बात को जान जाते कि यह भिक्षु का जीवन जी नहीं पाया और दुवारा से ग्रस्त बन गया इसका मतलब है अपने पथ से विचलित हुआ है, नीचे गिरा है ,इसीलिए यह सामान का पात्र नहीं बनता और दूसरी बात यह भी है अगर कोई भी भिक्षु शिलहिन होता है। तो वह अपने आप को सुधारने की कोशिश करता है उसके पाकिलोक के नियमों का विधान किया गया पाकिलोक के नियमों लिए बनाए गए और आचार्य के साथ जाकर के पाकिलोक के नियमों का पालन करते हुए भिक्षु अपनी ग़लती सुधार सकता है अगर कोई भिक्षु शिलहिन रहता है नियम को मानता नहीं है जानबूझकर नियम तोड़ता है भिक्षु संघ उसको संघ से निष्कासित कर देता है उसका चिवर छीन लेता है ऐसी अवस्था में अगर कोई व्यक्ति लौट के आता है तो वह अपमानजनक है भिक्षु बना एक समान जनक बात है गृह त्याग करके कोई व्यक्ति भी भिक्षु बन रहा है भिक्षु का जीवन त्याग का जीवन है यह बात भी जरूरत है दिक्षा के उपरांत को सामान्य ग्रस्त व्यक्ति घर में रहता है परिवार का पालन पोषण करता है परिवार की जिम्मेदारी का निर्वाह करता है वह संपत्ति का स्वामी होता है लेकिन भिक्षु बनने के बाद उस संपत्ति का कभी त्याग करना होता है वह कभी भी संपत्ति का स्वामी नहीं बनता है भिक्षु की कोई संपत्ति नहीं होती है उसके पास सुख सुविधाओं नहीं होता है तो भिक्षु जीवन त्याग का जीवन है यहां इस बात को समझना है कि एक सामान्य व्यक्ति की दीक्षा और भिक्षु की दीक्षा पूरी तरह एक संख्कार है एक परंपरागत संख्कार है एक नियम पद आचरण है तो इन दिशाओं में हमें अंतर समझना चाहिए कोई भी गृहस्थ व्यक्ति के उपासक उपसिका का जीवन जीता है लेकिन कोई भी उपासक उपसिका भिक्षु बन सकता है लेकिन भिक्षु बनने के लिए उसे पावज्या और पावज्या के बाद उपसंपदा संख्कार करना होता है लेकिन भिक्षु बनने के बाद दोबारा से ग्रस्त बनना उचित नहीं होता है उसे भिक्षु रहना पड़ता है जो उपासक उनका भी एक संघ है जिसे उपासक उपासिका संघ बोलते हैं धम्म में चार प्रकार के संघ की परिकल्पना की है गृहस्थ व्यक्ति के लिए उपासक शब्द हो गया और उपसिका शब्द हो गया और भिक्षु के लिए भिक्षु संघ भिक्षुनी संघ सामान्य रूप से भिक्षु और भिक्षुणी का एक ही संग है भिक्षुओं का उपासकों का अपना संघ है तो यह आवश्यकता को देख करके इस प्रकार के समय का निर्माण किया गया है